SANTHALDISHOM(সানতাল দিশোম): 04/09/19

Tuesday 9 April 2019

लोकसभा चुनाव बस्तरः 'आदिवासी डर कर पोलिंग बूथ पर गए ही नहीं, मगर वोट पड़ गए'

छत्तीसगढ़, बस्तर

लोकसभा चुनावों के पहले चरण में छत्तीसगढ़ की सिर्फ़ एक सीट पर मतदान होगा. ये सीट है बस्तर, जहाँ चुनाव करवाना एक जंग लड़ने के बराबर है.
बस्तर के सुदूर इलाक़ों में माओवादी छापामारों की समानांतर सरकार चलती है जो चुनावी प्रक्रिया को ख़ारिज करते हैं और चुनावों के बहिष्कार की घोषणा करते हैं.
माओवादी अपनी सरकार को 'जनताना सरकार' कहते हैं जिसका बस्तर संभाग के बड़े हिस्से में ख़ासा प्रभाव देखा जा सकता है.
इस संभाग के बड़े हिस्से पूरी तरह से कटे हुए हैं, जहां न मोबाइल नेटवर्क है और ना ही सड़कें. कई गांव ऐसे हैं जहां तक पहुंचना और चुनाव कराना बड़ी चुनौती है.
वैसे तो बस्तर संभाग का हर बूथ संवेदनशील है, मगर माओवादी हमलों को देखते हुए कई मतदान केंद्रों का स्थानांतरण किया गया है.

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छत्तीसगढ़, बस्तर
कुछ बूथ 20 किलोमीटर तो कुछ उससे भी ज़्यादा दूर स्थानांतरित किये गए हैं जिससे ग्रामीणों को काफ़ी परेशानी होती है. ग्रामीणों के सामने वोट डालना एक बड़ी चुनौती है.
इस संघर्ष ने बस्तर के सुदूर जंगल के इलाकों के रणभूमि में तब्दील कर दिया है. और, संघर्ष की वजह से चुनाव कराना भी एक जंग ही लड़ने के बराबर है.
इलाक़े की भौगोलिक परिस्थिति और संवेदनशीलता को देखते हुए अर्ध सैनिक बलों के पचास हज़ार जवान मैदान में उतारे गए हैं. इनके अलावा राज्य पुलिस के जवान भी तैनात किये गए हैं.
सिर्फ एक सीट पर उतने सुरक्षा बल के जवान उतारे गए हैं जिनसे पूरे राज्य में चुनाव करवाया जा सकता है.
माओवादी छापामारों और सुरक्षा बलों के बीच लंबे समय से चल रहे संघर्ष की वजह से सुदूर इलाकों में आवाजाही के साधन नहीं हैं. माओवादी रह रह कर धमाके कर चुनावी प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश करते रहते हैं.
छत्तीसगढ़, बस्तर
माओवादियों के चुनाव बहिष्कार के आव्हान के बाद बस्तर के अंदरूनी संवेदनशील इलाकों से मतदान केंद्रों को दूसरी जगहों पर 'शिफ्ट' कर दिया गया है. और जहाँ पर बूथ बनाए गए हैं उनकी दूरी दस किलोमीटर से 15 किलोमीटर या 20 किलोमीटर तक की है. ग्रामीण आदिवासियों का कहना है कि उनके लिए इतनी दूर तक जाकर वोट डालना बहुत मुश्किल का काम है."
छत्तीसगढ़, बस्तर
Image captionदंतेवाडा जिले के फुल्फार्ड गांव के निवासी सोनाराम बरती.
दंतेवाडा जिले के फुल्फार्ड गांव के निवासी सोनाराम बरती का मानना है कि मतदान केन्द्रों को इतनी दूर ले जाना ग़लत है क्योंकि इससे गाँव के लोगों को बड़ी परेशानी होती है. खास कर तब जब आवाजाही के साधन न हों.
मगर चुनाव आयोग और प्रशासनिक अधिकारियों का कहना है कि चुनावों के दौरान माओवादी हमले बढ़ा देते हैं. वो सुरक्षा बलों और मतदान कर्मियों पर हमले करते हैं इस लिए मतदान कर्मियों के दल को सुदूर इलाकों में भेजना मुश्किल काम है.
अनुमंडलीय पुलिस अधिकारी पिताम्बर पटेल कहते हैं कि माओवादी चुनावों के दौरान सबसे ज्यादा हमले इसलिए करते हैं ताकि वो सुरक्षा बलों से हथियार और असलाहा छीन सकें.
जंगलों तक जाने वाले रास्तों पर बारूदी सुरंगों का जाल बिछे होने का ख़तरा बना रहता है.
छत्तीसगढ़, बस्तरइमेज कॉपीरइटBBC SPORT
Image captionअनुमंडलीय पुलिस अधिकारी पिताम्बर पटेल
बीबीसी से बात करते हुए पटेल कहते हैं , "स्थानीय स्तर पर अनेक परिस्थितियाँ ऐसीं हैं कि मतदान दलों को सुरक्षा के दृष्टिकोण से उतनी दूर पहुंचाना संभव नहीं होता. इसलिए मतदान केंद्रों को ही दूसरी सुरक्षित जगहों पर ले जाया जाता है. प्रशासन की ओर से पूरे प्रयास रहते हैं कि ग्रामीण अधिक से अधिक संख्या में आयें और वोट डाल पाएं. साल 2018 के चुनावों में एक भी मतदान केंद्र ऐसा नहीं रहा जिसमे मतदाता ना आया हो. भले ही उसको 60 किलोमीटर शिफ्ट किया गया था."
सरकारी दावों के हिसाब से उन बूथों पर भी अब वोट पड़ने लगे हैं जहां पहले एक भी वोट नहीं डाला जाता था. मगर गाँव के लोगों के दावे अलग हैं.
छत्तीसगढ़, बस्तर
हेमंत कुमार मंडावी, सुदूर गिरोली गाँव के रहने वाले हैं. ग्रामीणों की परेशानियों को साझा करते हुए वो मतदानकर्मियों पर ही फ़र्ज़ी तरीके से वोट डालने का आरोप लगाते हैं.
वो कहते हैं: "पिछली बार, पोलिंग बूथ पर जिन लोगों की ड्यूटी लगती थी, उन्होंने दो चार लोगों के वोट खुद ही दबा दिए थे. गाँव वाले तो कोई गए ही नहीं थे डर के मारे. सब अपनी खेती बाड़ी में लगे हुए थे."
बस्तर संभाग में चुनावी प्रक्रिया उतनी आसान भी नहीं है. कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने न पिछली बार वोट डाला था और ना इस बार वो वोट डालेंगे. सबकी अपनी अपनी मजबूरियां हैं.
जनजातीय समुदाय से आने वाले मंगल कुंजाम ने माओवादी इलाकों में चुनाव की समस्या पर बनी हिंदी फिल्म 'न्यूटन' में पत्रकार की भूमिका निभायी थी. उनका गाँव गुमियापाल भी शहरी इलाके से 12 किलोमीटर दूर है और वहां भी माओवादियों के बहिष्कार का ख़ासा असर है.
गुमियापाल से मतदान केंद्र को 12 किलोमीटर दूर स्थानांतरित कर दिया गया है. मगर मंगल कुंजाम कहते हैं कि उनके गांव के लोग वोट डालने नहीं जाते.
छत्तीसगढ़, बस्तर
कुंजाम का कहते हैं, "2005 से पहले जो चुनाव होते थे तब हमारे इलाक़े में सभी लोग वोट डालते थे. जब से माओवाद का प्रभाव पड़ा इलाक़े में, तब से तो हमलोग वोट ही नहीं डाल रहे हैं. पिछले विधान सभा के चुनावों में भी वोट नहीं डाले, इस बार भी नहीं डालेंगे. किसी इलाके में माओवादियों का क़ब्ज़ा हो और मैं बहिष्कार के आव्हान के बावजूद वोट डालने जाता हूँ तो मेरी सुरक्षा की जवाबदेही किसकी होगी ?"
अपना अनुभव बताते हुए वो कहते हैं कि एक बार उन्हें वोट डालने के लिए माओवादियों के ग़ुस्से का सामना करना पड़ा और माफ़ी भी मांगनी पड़ी.
बस्तर का पूरा संभाग आदिवासी बहुल है. यहाँ के सर्व आदिवासी समाज का कहना है कि सुदूर अंचलों में रहने वाले जनजातीय समुदाय के लोग बाक़ी की दुनिया से कटे हुए हैं. उन्हें आजतक चुनावी प्रक्रिया के बारे में कुछ भी पता नहीं है.
समाज के महासचिव धीरज राणा कहते हैं, ''जैसे मुखिया या सरपंच ने कह दिया चलने को तो गाँव के लोग आँख बंद कर के चल देते हैं. चाहे वोट देनें जाना हो या फिर किसी पार्टी की रैली में जाना हो. उनका कहना है कि आदिवासी समाज के लोगों को ये नहीं मालूम कि वहां पर किस लिए जा रहे हैं. कोई जानकारी नहीं है. वोट देना है तो बटन कहाँ दबाना है, इसकी भी जानकारी उनको नहीं होती है.''
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चुनाव आयोग और स्थानीय प्रशासन ने मतदाताओं को जागरुक करने की मुहिम तो चलायी है. मगर ये मुहिम सिर्फ शहरी इलाकों तक ही सीमित है. चुनाव के दौरान अंदरूनी इलाकों में रहने वालों के बीच डर समाया रहता है.
मलोश्नार गाँव के रहने वाले बलराम भास्कर के अनुसार, जब से माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच संघर्ष और भी ज़्यादा सघन हुआ है, तब से आदिवासी समाज के लोग, अधिकतर जो लोग शहर से 15 या 20 किलोमीटर दूर रहते हैं, वो डर डर के ही रहते हैं. उन्हें भरोसा नहीं है कि इन इलाकों में संघर्ष के बीच उनकी और उनके परिवार वालों की ज़िन्दगी कितने दिनों की है.
राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच चुनावों का उत्साह सिर्फ शहरी इलाकों तक ही सीमित क्यों ना हो, दहशत के साए के बीच बस्तर के सुदूर इलाकों के आदिवासियों में लोकतंत्र की इस प्रक्रिया के लिए कोई रूचि नहीं दिखती. वो तो बस अपनी संस्कृति और अपने जंगलों तक ही सीमित रहना चाहते हैं.
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সেন্দরা করলে বন্যা প্রাণীরা বছর কে বছর বেড়ে যায় এমনই প্রস্তাব আদিবাসীদের

ভঞ্জ মুলুক:- ভারত জাকাত মাঝি পারগানা মহল শালবনি ভঞ্জ মুলুকের সমস্ত পীড়ের পীড় পারগানা বাবা ও মাঝিবাবাদের  নিয়ে এক আলোচনা সভা হল ভঞ্জ মুলুক ধরম গাড়ে । শালবনি ভঞ্জ মুলুকের সমস্ত পীড়ের পীড় পারগানা  বাবাদের উপস্থিতিতে ঐদিন বর্তমান পরিস্থিতি অর্থাৎ আদিবাসীদের শিকার প্রশাসনের পক্ষ থেকে বন্ধ নিষেধাজ্ঞা জারির নিয়ে বিস্তারিত ভাবে আলোচনা করা হয়।

কেননা এখন বর্তমানে আদিবাসীদের শিকার বন্ধ নিয়ে প্রশাসনের পক্ষ থেকে নানা রকম পদক্ষেপ নেওয়া হচ্ছে আদিবাসীদের বিরুদ্ধে। এবং এই নিয়ে আজ সমস্ত আদিবাসী সমাজকে সচেতন থাকতে হবে, এনিয়ে বিস্তারিত ভাবে ঐদিন মুলুক ধর্ম গাড়ে আলোচনা করা হয়। ঐদিন আলোচনা সভা থেকে সমস্ত পীড়ের পীড় পারগানা বাবারা  জানাই যে আদিবাসীদের শিকার বন্য প্রাণী হত্যা করে শেষ করার জন্য নয়

বরং আদিবাসীরা স্বীকার করলে বছর কে বছর আবার প্রাণী বেড়ে যায় ।আদিবাসীরা যে সব প্রাণীকে শিকার করে তারা কখনো বিলুপ্ত হয়নি কিন্তু চোরা শিকারীরা যেসব প্রাণীকে শিকার করে তারা বিলুপ্ত হয় । কিন্তু বাস্তবে যারা বনজ সম্পদ ধ্বংস করছে, প্রাণী হত্যা করছে ও হাতির দাঁত এবং বাঘের চামড়া বিক্রি করছে তাদের বিরুদ্ধে কেন প্রশাসন পদক্ষেপ নিচ্ছে না ? বড় বড় কোম্পানির হাতে শিল্পায়নের জন্য বিশাল বনভূমি তাদের কে তুলে দেওয়া হচ্ছে ।

এবং যারা আদিবাসীরা বন জঙ্গল কে রক্ষা করে তাদের কে কেন বনাঞ্চল থেকে উৎখাত করা হচ্ছে ? তাহলে কি সেটা ওই বড় বড় কোম্পানি দের জন্য ? এরকম আরোও নানান প্রশ্ন ওই দিন পারগানা বাবারা তুলে ধরেন। ঐদিন আরোও বিস্তারিতভাবে সামাজিক পরিকাঠামো নিয়েও আলোচনা করা হয়। আদিবাসী সামাজিক ব্যবস্থা কে সুষ্ঠুভাবে পরিচালনা করার জন্য এবং আদিবাসী মানুষকে একজোট হওয়ার জন্য ঐদিন তারা ভঞ্জ মুলুক ধরম গাড়ের  বঙ্গা বুরুদের নিকট প্রার্থনা করে।

DURGAPUR DISHOM MAK MODE

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Santal indigenous community celebrates ‘Baha Porob’

The Santal indigenous community in Gobindaganj subdistrict of Gaibandha district  welcomed spring in a festive manner through “Baha Porob,” traditional spring celebration on 12 March. 
Baha means flower in the Santal language, for which the festival is also known as festival of flower
The Baha Porob celebration community organized the festival jointly with Obolombon, a non-profit organization, with support from the Human Rights Programme of the United Nations Development Programme (UNDP).
People of the Santal community joined the festival with enthusiasm. Santal women wore flowers, and danced and sang which created the festive mood.
Besides villagers, various Santali cultural groups and artistes performed on the occasion. Everybody was mesmerized by their performances on Santali music and dance.
The program was presided over by Philemon Basak, president of the celebration committee. Gaibandha-4 MP Monowar Hossain Chowdhury was present on the occasion as chief guest while municipal Mayor Ataur Rahman was present there as special guest.
Shankar Pal and Mahbubul Haque from UNDP, advocate Sirajul Islam Babu, researcher Kerina Hasda, Prisila Murmu, Naren Basak, president of Pargana Parishad were also present during the festival, among others.

বীরভূম জেলার সিউড়িতে স্বাধীনতা সংগ্রামী বাজাল এর নামে মেলা

 বীরভূম জেলার সিউড়ির বড়বাগানের আব্দারপুর ফুটবল ময়দানে আয়োজিত হতে চলেছে ‘বীরবান্টা বাজাল মেলা-২০১৯’। ১৯শে জানুয়ারি এই মেলা আয়োজিত...